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आच्या॒ जानु॑ दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒मं य॒ज्ञम॒भिगृ॑णीत॒ विश्वे॑। मा हि॑ꣳसिष्ट पितरः॒ केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ऽआगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म ॥६२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आच्येत्या॒ऽअच्य॑। जानु॑। द॒क्षि॒ण॒तः। नि॒षद्य॑। नि॒षद्येति॑ नि॒ऽसद्य॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। अ॒भि। गृ॒णी॒त॒। विश्वे॑। मा। हि॒ꣳसि॒ष्ट॒। पि॒त॒रः॒। केन॑। चि॒त्। नः॒। यत्। वः॒। आगः॑। पु॒रु॒षता॑। करा॑म ॥६२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:62


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वे) सब (पितरः) पितृलोगो ! तुम (केन, चित्) किसी हेतु से (नः) हमारी जो (पुरुषता) पुरुषार्थता है, उसको (मा, हिंसिष्ट) मत नष्ट करो, जिससे हम लोग सुख को (कराम) प्राप्त करें, (यत्) जो (वः) तुम्हारा (आगः) अपराध है, उसको हम छुड़ावें, तुम लोग (इमम्) इस (यज्ञम्) सत्कारक्रियारूप व्यवहार को (अभि, गृणीत) हमारे सन्मुख प्रशंसित करो, हम (जानु) जानु अवयव को (आच्य) नीचे टेक के (दक्षिणतः) तुम्हारे दक्षिण पार्श्व में (निषद्य) बैठ के तुम्हारा निरन्तर सत्कार करें ॥६२ ॥
भावार्थभाषाः - जिनके पितृ लोग जब समीप आवें अथवा सन्तान लोग इन के समीप जावें, तब भूमि में घुटने टिका नमस्कार कर इनको प्रसन्न करें, पितर लोग भी आशीर्वाद, विद्या और अच्छी शिक्षा के उपदेश से अपने सन्तानों को प्रसन्न करके सदा रक्षा किया करें ॥६२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आच्य) अधो निपात्य (जानु) (दक्षिणतः) दक्षिणपार्श्वतः (निषद्य) समास्य (इमम्) (यज्ञम्) सत्काराख्यम् (अभि) आभिमुख्ये (गृणीत) प्रशंसत (विश्वे) सर्वे (मा) (हिंसिष्ट) (पितरः) ज्ञानप्रदाः (केन) (चित्) (नः) अस्माकम् (यत्) (वः) (आगः) अपराधम् (पुरुषता) पुरुषस्य भावः (कराम) कुर्याम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप् ॥६२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विश्वे पितरः ! यूयं केनचिद्धेतुना नो या पुरुषता तां मा हिंसिष्ट, यतो वयं सुखं कराम, यद्व आगस्तत् त्याजयेम, यूयमिमं यज्ञमभिगृणीत, वयमाच्य जानु दक्षिणतो निषद्य युष्मान् सततं सत्कुर्याम ॥६२ ॥
भावार्थभाषाः - येषां पितरो यदा सामीप्यमागच्छेयुः स्वयं वैतेषां निकटे समभिगच्छेयुस्तदा भूमौ जानुनी निपात्य नमस्कृत्यैतान् प्रसादयेयुः, पितरश्चाशीर्विद्यासुशिक्षोपदेशेन स्वसन्तानान् प्रसन्नान् कृत्वा सततं रक्षेयुः ॥६२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - पिता व पुत्र जेव्हा एकमेकांच्या जवळ येतील तेव्हा पुत्राने भूमीवर गुडघे टेकून नमस्कार करावा व त्यांना प्रसन्न करून घ्यावे. पितरांनीही त्यांना आशीर्वाद द्यावा व विद्या आणि चांगल्या उपदेशाने संतानांना प्रसन्न करून सदैव त्यांचे रक्षण करावे.